Thursday, March 23, 2017

हे लग्नस्थ राहु महाराज ! Prayer to Rahu !



हे लग्नस्थ राहु महाराज !

मानता हूँ कि आप लग्न में बैठकर मन को स्थिर नहीं होने देते। आप बहुत महत्वाकांक्षी हैं। आप मन को एक तरीके में, एक साधना विधि में स्थिर नहीं होने देते। बार बार पलटते हैं।  और लोगो से घुल-मिल कर चलने से रोकते हैं।  व्यवहारिक नहीं होने देते। आप मन को संतुष्ट नहीं होने देते और और  करते हैं।  

आप  कृपया इतना तो मेरे लिए कर ही दीजिये।  मेरी महत्वाकांक्षायें  माँ  के चरणों की प्राप्ति तथा माँ की गोद प्राप्ति की हों जायें। इससे ऊंची महत्वाकांक्षा  तो इस जगत  में हो ही नहीं सकती है।  

मेरा मन एक चीज़ में स्थिर न हो तो मैं कभी माँ के नाम का जप करूं, कभी उनके चरण कमलों का ध्यान करूं, कभी उनका नाम संकीर्तन करूं, कभी ध्यान में माँ से बातें करूं, कभी सर्व जगत में उनको व्याप्त देखूँ। कभी सद्गुरु को उनका स्वरूप मान पूजूं । कभी कन्या पूजन द्वारा माँ का पूजन करूं। कभी सत्संग का आयोजन करूं। कभी माँ के बच्चो को भोजन कराऊँ।  कभी माँ के प्यारे संतों जैसे श्री रामकृष्ण  परमहंस, श्री वामाक्षेपा के जीवन चरित्र सुधा का पान करूं। कभी सभी देव स्वरूपों में माँ का ही दर्शन करूं।  सुख और दुःख में उनका ही लीला का दर्शन करूं। कभी माँ से गुस्सा हो जाऊं तो कभी उनसे सुलह कर लूं। कभी उनको ब्रहम स्वरूप देखूँ  तो कभी अपनी माता स्वरूप में।  पर रहूँ मैं सर्वदा माँ का शिशु ही। 

अगर मैं किसी से घुलू-मिलूँ नहीं तो एकांत में माँ का स्मरण करूंऔर उनके चरण कमल के सानिध्य में रहूँ। 

अगर मैं समाज से व्यवहारिक न होऊं तो मेरा सब जग व्यवहार केवल माँ के नाते से ही होवे।  

अगर मैं किसी चीज़ से संतुष्ट न होऊं तो वो हो माँ के भजन-सुमिरन से। 

अगर मुझे बहुत भूख लगे तो माँ ही मुझे खिला रहीं हैं ऐसा मेरा भाव हो। 

मैं सोऊं तो माँ की गोद में ही।  

कृपया माँ के लिए इतना तो कर ही दीजिये राहु महाराज।  इतना तो कर ही दीजिये ।   

जय माँ ललिताम्बा।  जय गुरुदेव । 

Thursday, March 2, 2017

|| भाव सरिता - नाम न भूलूँ तेरा माँ ! ||


भूलूँ रिश्ते नाते चाहें भूलूँ दिन राते नाम न भूलूँ तेरा माँ ...
भूलूँ विद्या, बल, यश भूलूँ सारे षट रस नाम न भूलूँ तेरा माँ ...
भूलूँ में नाम अपना भूलूँ पहचान नाम न भूलूँ तेरा माँ ...
भूलूँ सारे कष्ट अपने भूलूँ सारे सपने नाम न भूलूँ तेरा माँ ...
भूलूँ घर बार मै भूलूँ सँसार मैं नाम न भूलूँ तेरा माँ ...
भूलूँ अपना पराया मैं कौन गया आया पर नाम न भूलूँ तेरा माँ ...
भूलूँ में लोक लाज भूलूँ मैं संग समाज पर नाम न भूलूँ तेरा माँ...
भूलूँ मैं साधना भूलूँ मैं आराधना पर नाम न भूलूँ तेरा माँ ...
भूलूँ मैं बोलना यहाँ वहाँ डोलना नाम न भूलूँ तेरा माँ ...
भूलूँ मैं जनम मरण अब चरण शरण नाम न भूलूँ तेरा माँ ...
भूलूँ मैं मोक्ष मुक्ति सारे जतन युक्ति तेरा नाम न भूलूँ तेरा माँ...
भूलूँ मैं तर्क वितर्क भूलूँ मैं स्वर्ग नर्क पर नाम न भूलूँ तेरा माँ...
अब एक ही है कामना जो तुझसे है माँगना तेरा नाम न भूलूँ तेरा माँ ...

Saturday, February 18, 2017

|| भाव सुमन -०० - क्रंदन करता बालक और माँ ||


आज माँ  की महिमा के बारे में श्री अभिनव गुप्त जी का अद्भुत ग्रन्थ " Abhinav Gupt : A Trident of Wisdom " पढ़ रहा था। पढ़ते पढ़ते रोमांच व आनंद के भाव में यह अनुभूति हुई , कि जिस प्रकार एक बालक बैचेन हो जाने पर किसी भी चीज़ से संतुष्ट नहीं होता है, तब उसे केवल और केवल माँ चाहिये होती है, और माँ की उपस्थिति  का अनुभव होते ही वो चुप हो जाता है, फिर उसे किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं होती, वो प्रसन्नचित होकर आनंदमय हो जाता है, भला ऐसा क्योँ न हो हमारी माँ आनंदमयी जो हैं।  ऐसी ही कुछ अवस्था होने पर जब कभी मन अत्यंत खिन्न और बैचेन हो जाता है तो सिर्फ माँ की चिंतन , माँ की महिमा का स्मरण और सब जगह, अपने अंतःकरण में माँ की अनुभूति ही शांत कर पाती है और कुछ नहीं । ऐसी अनुभूति श्री अभिनव गुप्त जी का अद्भुत ग्रन्थ पढ़ कर हो रही है। 

अतः हम यदि सदैव अपने को माँ से जोड़े रखेंगे, अलग न होने देंगे। तो कभी भी छोभ, विषाद स्पर्श नहीं कर पायेंगे।और यहाँ तो माँ ने कभी हमें छोड़ा ही नहीं है वो माँ तो ह्रदयस्थ हैं वरन हम ही माँ को भूल जाते हैं अतः हर समय माँ के चरण कमलों को स्मरण  द्वारा स्पर्श करते रहना चाहियें। 

Thursday, February 9, 2017

|| भाव सुमन -०० - मातृ भाव से उपासना ||

जगत जननी माँ अम्बा 
मातृ भाव की उपासना
श्री रामचरित मानस जी से 

जय गज बदन षडानन माता । 
जगत जननि दामिनि दुति गाता  

हे ! श्री गणेश जी और श्री कार्तिकेय जी की माता की जय हो। वो जो सारे जगत की जननी हैं और जिनकी देह की कान्ति चमकती हुई विघुत के समान हैं, वो माँ हम पर कृपा करें

वो माँ हमें भी शिशु के रूप में स्वीकार कर अपनी ममता और करूणा की छावं में ले लें। 

एकान्त में ध्यान में बैठें और माँ की ऊपर दी गयी मातृ स्वरूप छवि का मन ही मन चिंतन करते हुए स्वयं को छोटे शिशु के रूप में माँ के सम्मुख जाने। आर्त भाव को धारण करते हुए "माँ माँ ओ माँ ओ माँ उमा उमा" कहते हुए पुकारे।  उपर दी गयी चौपाई को खुलकर भावपूर्वक गायें स्वर,धुन आदि की चिंता न करें ,बालक को माँ को पुकारने में कैसी शर्त, कैसा नियम !  

Monday, February 6, 2017

|| भाव सुमन -०० - माँ से वार्तालाप ||


हे माँ । यह जो में विगत ३-४ वर्षो से अध्यात्मिक ज्ञान पढ़-सुन रहा हूँ। यह सब तेरी ही कृपा हो सकती है वरना यह सब पढ़ना-सुनना आश्चर्य लगता है। सामान्यतः बुद्धि इन बातों को पकडती ही नहीं हैं । ऐसे में यह बुद्धि जो इन बातों को पकडती है वो सिर्फ तेरी अनुकम्पा के बिना नहीं हो सकता है। बस माँ अब तेरे आशीर्वाद से जो पढ़ा-सुना है वो अन्दर घटने भी लग जाये। 

एक तरफ लगता है तूने मेरा सब कुछ ले लिया है परन्तु दूसरी तरफ दीखता है कि तू तो बहुत कुछ देने की तैयारी में है। 

हे अम्बे । अब जो भी हो मुझे अपने चरण कमलों में पूर्ण समर्पण प्रदान कर चरण-शरण में ले लो। मुझे श्रद्धा और विश्वास प्रदान करो ,माँ । अब अन्दर से समझ में आता है माँ कि क्योँ स्वामी विवेकानंद ने माँ काली से श्रद्धा, विश्वास, जानने और मानने के अलावा कुछ नहीं माँगा था। 

माँ । मैं तो वो बालक हूँ जो पुस्तके पढ़ पढ़ कर बोलना सिखा है। जैसे अ से अनार । तेरे प्रयोगात्मक ज्ञान का अनुभव तो तेरी कृपा से ही होगा, न माँ । 

हे त्रिपुरा सुंदरी मैया । तूने ही तो त्रिपुरा रहस्य में कहा है कि जो भी गंभीरता तथा ईमानदारी से प्रयास करेगा तू अपनी कृपा द्वारा उसके आलस्य,सुस्ती को स्वयं दूर कर देगी । अतः मैया में अब हर समय तेरे ही चिंतन का अभ्यास करूंगा ताकि कभी भी तेरा विस्मरण न हो। ऐसा मुझको आशीर्वाद दे। 

माँ । तू तो नित्य है, सर्व शक्तिमयी है, सर्वज्ञ है, सर्वत्र है, सर्व नाम - रूप स्वरूप है, सर्व मंत्रमयी तथा सर्व शब्दमयी है, हमारा आत्मस्वरूप भी तो तू ही है ना माँ। अतः माँ । मैं जो भी हिलता-डुलता हूँ , जो भी बोलता-चालता हूँ, जिससे भी व्यवहार करता हूँ ; उस सबको तू अपनी ही आराधना मानकर स्वीकार कर लेना माँ। इससे मैं एक पल के लिए भी तुझसे रहित न होऊंगा। जब सोता हूँ तो तेरे चरणकमलों पर ही सिर रख कर सोता हूँ। जब खाता हूँ तो कभी तो तू मुझे अपने कर कमलों से खिलाती है और कभी मैं तुझे वैशवानर अग्नि में भोग लगाता हूँ । माँ क्यूंकि यह देह भी मेरी नहीं हैं यह तो तेरा एक औज़ार, एक अस्त्र है। तो इसका मतलब है हर दैनिक क्रिया में तू ही मुझे पालती-पोसती है। 

माँ हर वो परिस्थिति तथा व्यक्ति जिसके कारण मैंने अपने को दुखी माना हो या व्यतिथ हुआ हूँ ; वस्तुतः मेरा परम हितैषी ही है। उसने मुझे तेरे और करीब ला दिया है ,माँ।

Sunday, February 5, 2017

|| भाव सरिता - मौन हो जाने दो मुझे ताकि कुछ बात तो मैं कर सकूँ ||



मौन हो जाने दो मुझे ताकि कुछ बात तो मैं कर सकूँ, 
गहराईयों में कुछ यूँ खो जाने दो कि रास्तें मैं पा सकूँ,

झुकने दो इस कदर मुझे कि सिर मैं उठा सकूँ. 


मौन हो जाने दो मुझे दो बात करने के लिये, 
सब कुछ लुटाने दो मुझे उस दौलत को पाने के लिये, 
अस्तित्व मिटाने दो मुझे अपनी हस्ती दिखाने के लिये.

मौन हो जाने दो मुझे दो बात करने के लिये, 
कुछ यूँ भूला दूँ खुद को में सब कुछ याद आने के लिये,
कुछ यूँ सुला दूँ अरमानो को इन जमानो को जगाने के लियें, 

मौन हो जाने दो मुझे ताकि कुछ बात तो मैं कर सकूँ, 
कुछ ऐसा फिजा में बिखेर दूँ में , फिर हम एक हों जाएँ 
मिटा कर गिले शिकवे, फिर से हम नेक हो जाएँ. 

मौन हो जाने दो मुझे ताकि कुछ बात तो मैं कर सकूँ, 
एक राह यूँ सजा दूँ में, कि बेकरार सब हों जायें. 
जो आयें खीचें चले , पार सब वो हों जायें,

|| भाव सुमन -०० - माँ से आर्त प्रार्थना ||



हे अम्बिका त्रिपुरा सुन्दरी माता ! 


मुझमे इतना बल और शक्ति नहीं है की मैं तेरी गोद में स्वयं ही चढ़ आऊँ मां. माँ ये तो बता कब से बालक को माँ की गोद में आने के लिए शक्ति और बल चाहियेंने लगा. माँ ! कब से बालक को माँ के आँचल में छिपने के लिए पवित्रता के प्रमाण आवश्यकता लगने लगी. हर कोई यही बताता है मां , साधना करनी होगी , पवित्रता चाहियें. माँ मेरी साधना तो यह करुण व आर्त क्रन्दन ही है मेरी स्वछता तो इन अश्रु जल से भीगना ही है माँ. 

माँ मैं तो सोचता था माँ का आँचल तो निर्बल व् मल से सने बच्चो को भी प्यार व् ममता से सम्भालने के लिए होता है. बल तो बालक को माँ की गोद प्रदान करतीं है, बालक को स्वच्छ तो माँ स्वयं ही करती है. 

हे अम्बिके, हे त्रिपुरा सुन्दरी मैया ! कब तू इस बालक की आर्त पुकार सुन दौड़ी चली आएगी मां, कब तक यो ही निष्ठुर होने का नाटक करेगी मां, क्योँ माँ, तेरे को और कोई खेल नहीं सुझा अपने बालक से खेलने के लिए, मुझसे अलग होने के अलावा. 

माँ तू सब के अंदर माता रूप से विद्यमान है, पर माँ मुझे तेरे दर्शन क्योँ नहीं होते, क्या मेरी अपवित्रता तेरी ममता व् करूणा से बड़ी हो गयी है मां ? क्या मैं तेरा शाश्वत पुत्र नहीं हूँ मां ? या तू भी मुझे स्थूल रूप में शिशु, युवक , व्यस्क ही देखती हैं मां, क्या तू भी मुझे मेरे कर्म, गुण व् चेष्टाओं, पाप, पुण्य से तोलती है माँ ?

देख माँ , तू कितने ही रूप में क्योँ न प्रकट हुई हो मां, पर में तो तेरा एक ही रूप जानता हूँ और वो है मेरी माँ का. मुझे तेरे अलावा कोई ठोर नहीं है माँ, माँ जब तक तू मुझे गोद में लेकर परम पिता के हाथ में न देगी , तब तक ये बालक माता पिता के प्रेम से वंचित ही रहेगा माँ. 

माँ मैं जो हूँ वो मैं हूँ नहीं, और जो मैं होना चाहता हूँ वह मैं हूँ ही. 

माँ मुझे बहुत तरह से प्रार्थना करनी भी नहीं आती, मन में जो आया वो कह दिया, माँ. और मैंने क्या कहा माँ , यह भी तूने ही कहलवाया है.

|| भाव सुमन -०० - माँ के चरणों ओर ||



माँ ! वो माँ जो कभी भी जुदा नहीं होती । मैं उस माँ का अनुसरण कर रहा हूँ , जैसे एक छोटा बालक घुटनों के बल माँ के पीछे पीछे चलता है, पहले पहले तो माँ काम पर ध्यान देती है फिर जब देखती है यह तो मान ही नहीं रहा है तो माँ गोद में ले लेती है। ऐसे पवित्र भाव के साथ माँ के चरण कमलों का अनुसरण करते रहों । कोशिश करों की माँ से लाभ हानि से परे का नाता जोड़ो। श्री वामाखेपा जो माँ के तारा रूप की भक्ति करते थे वो अपनी माँ को छोटी माँ तथा माँ तारा को बड़ी माँ कहते थे। ऐसा पवित्र भाव तथा सम्बन्ध होंना चाहियें। 

कलयुग में मन, ह्रदय, अन्न आदि की शुद्धि नहीं हैं । अतः माँ के चरण कमलों की छवि रखो, पूजो, ह्रदय में बसाओ, ध्यान करों। जब छोटा बच्चा घुटनों के बल चलता है तो उसकी दृष्टि माँ के चरणों पर होती है। अतः अपने आप को शिशु की भांति माँ के चरण कमलो पर रख दो, माँ अपने आप तुम्हे गोद में उठा लेंगी।

माँ के चरणों की उपासना रामचरितमानस जी की निम्न चौपाईयों से भाव पूर्वक गाते हुए करें 


देबि पूजि पद कमल तुम्हारे ।  सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे।। 

Saturday, January 7, 2017

|| भाव सुमन -०७ - भाईओं में आचरण ||



तेरे को याद है न श्री भगवन राम जी ने कैसे भ्रात्र प्रेम को जिया था. और उनका राज तिलक होने की बात पर अफ़सोस प्रकट किया था - “बिमल बंश यह अनुचित एकु ” . अतः ऐसे ही तू समझना. याद रख आचरण से ही बात कहीं जाती है- जब तक मेरा हक , मेरा मकान - मेरा हिस्सा, मेरा भविष्य, मेरी आमदनी यह शब्द मानस पटल से गायब नहीं हो जाते. श्री भगवान इस मन में कैसें पधारेंगे तथा माँ बाला त्रिपुरा सुन्दरी तुझे गोद में कैसे लेंगी, बोल ? वो तो राज पुत्र थे - फिर भी माँ कैकयी द्वारा वनवास देने पर भी मेरे प्रभु श्री राम जी के मुख मंडल पर अद्भूत दिव्य मंद मुस्कान थी और माँ कैकयी के प्रति पूर्ण मातृत्व व् श्रद्धा का भाव था - ऐसी मेरे प्रभु राम जी की निर्मल व् निश्चल छवि हमारे हृदयों की कुटिलता को हर ले, अपने जैसा बना दें. विश्वास रख भले युग बदल गया हो - कलयुग आ गया है पर मेरे राम जी के आचरण का सिद्धांत आज भी अकाट्य है व् अनुकरणीय है. क्या तुझे अपने पिता, चाचा व् ताऊ सगे भाईओं के मन की तल्खी देखकर दिल नहीं फट जाता. क्या अपने पडोसी व् मित्रो के पिताओं व् उनके भाईओं की तल्खी देख हृदय रो नहीं पड़ता कि कैसे एक माता पिता की संतान होने पर भी , पूरा बचपन साथ में खेलने पर भी , कैसे उनके मन में एक दुसरे के प्रति प्रेम ख़तम हो जाता है. हम प्रभु राम जी को पूजते तो जी भर हैं पर उनको जीना एक पल नहीं चाहते. जैसे एक छोटा बच्चा अपने पिता की तरह होना चाहता है व् एक अच्छा सेवक अपने उच्च मालिक के जैसे व्यवहार को अपनाना चाहता है वैसे ही में अपनी माँ बाला त्रिपुरा सुंदरी सेकहता हूँ कि माँ मुझे मेरे प्रभु श्री राम जी जैसा बनाना. 

मैं प्रभु श्री राम जी, भारत जी, लक्ष्मण जी, शत्रुघ्न जी व् माँ बाला त्रिपुरा सुन्दरी से प्रार्थना करता हूँ कि सभी भाईओं में प्रेम व् सोहार्द का भाव उत्पन्न हो. 

“ कलकत्ता में डा. दास गुप्ता एक जाने माने डॉक्टर थे. वे श्री राम ठाकुर के भक्तों में 'डॉक्टर दादा' के नाम से जाने जाते थे. श्री राम ठाकुर एक भगवद् स्वरूप संत थें जिनकी चर्चा स्वयं श्री नीम करोली बाबा जी भी किया करते थे. डॉक्टर साहब श्री राम ठाकुर का सान्निध्य प्राप्त करने का एक भी मौका नहीं छोड़ते थे. एक दिन वो अपनी कार से कहीं जा रहे थे, उन्होंने श्री ठाकुर को रोड पर देखा. उन्होंने कर रोकी और पूछा की आप कलकत्ता कब आयें और कहाँ रह रहें हैं . श्री ठाकुर जी ने कोई उत्तर नहीं दिया. इसके बजाय, वो बोले - “हर कोई जानता है कि दुर्योधन एक दुष्ट प्रवर्ती का मनुष्य था. उसके 100 भाई थे. तुम पूरा महाभारत पढ़ सकते हो लेकिन तुम कहीं नहीं पाओगे कि उसका अपने भाईयो से कोई झगडा था या उसने उन्हें प्यार नहीं किया. ” 

श्री ठाकुर के शब्दों ने अपना प्रभाव दिखाया. डॉक्टर ने अपना हाथ कार में डाला, और पेपरों की एक फाइल बहार निकाली, और उसको टुकड़े-टुकड़े कर फाड़ कर फ़ेंक दिया. और सिर उठाकर श्री ठाकुर को देखा पर वो तो जा चुके थे. बात यह थी कि डॉक्टर साहब हाई कोर्ट जा रहें थे, जहाँ उनका मुकदमा अपने भाईओं से जमीन-जायदाद के ऊपर चल रहा था. बाद में पूछताछ करने पर पता चला कि श्री ठाकुर तो एक हफ्ते से शिमला में हीं हैं और कहीं नहीं गये थे. ऐसे थे दिव्य श्री ठाकुर और उनका सन्देश भ्रात्र प्रेम के लिये. (story taken from Maharajji.com)

Friday, January 6, 2017

|| भाव सुमन -०६ - प्रभु राम से माँ की ओर ||



जय गुरुदेव जय माँ ललिता त्रिपुरसुन्दरी !

मैंने राम नाम की साधना खुद से प्रारंभ की थी पर जब जीवन में श्री सद्गुरु का पदार्पण हुआ उन्होंने मुझे माँ की गोद में रख दिया। यह सांसारिक तथा अपरिपक्व मन अब राम नाम साधना और माँ की साधना के बीच में आन्दोलित होने लगा। यह अवस्था 2-3 वर्ष तक रही। 


धीरे धीरे मैंने प्रभु श्री राम और माँ त्रिपुरा सुंदरी से आर्त भाव से प्रार्थना की माँ सब भेद मिटा दो। करुनानिधान प्रभु श्री राम और ममतामयी माँ ने शीघ्र ही दो उत्तर प्रदान किये; पहला श्री राम शरणम संस्थान के संत राम नाम सिद्ध श्री विश्वामित्र महाराज जी के लेख में उन्होंने रहस्य बताया की माँ उनसे खुद बातें करती हैं और कहा राम को माँ मानकर उपासना करने से सिद्धि जल्दी प्राप्त होती है। इसलिए उन्होंने राम को ऐसे पुकारा ;" Rammma- राऽऽऽऽम्मा।


प्रसिद्ध संत पापा रामदास ने भी माँ से संवाद लिखा है अर्थात माँ उनसे भी बातें करती थी। वे भी माँ और राम को एक ही देखते थे। 


दूसरा उत्तर स्वयं भगवान् राम ने पवित्र श्री रामचरितमानस के द्वारा दे दिया, जहाँ प्रभु राम कहते हैं "जिमि बालक राखऊं महतारी" अर्थात जो मेरे भक्त हैं उनको में ऐसे रखता हूँ जैसे बालक को माता रखती हैं। यहाँ से मेरे प्रभु श्री राम भी मेरी माँ हो गए । वैसे भी श्री राम भी सदा षोडश वर्षीय हैं और माँ त्रिपुरा सुंदरी भी षोडशी हैं। 


परन्तु यह तो आश्चर्यजनक मन है यह इतनी आसानी से कहाँ मानने वाला था, इस मन ने अब भी उहा-पोह नहीं छोड़ी। तब अन्दर से उत्तर आया - वस्तुतः मैं श्री राम के गुणों का दीवाना हूँ कि कैसे मेरे प्रभु के मुखमंडल पर माँ कैकई के वनवास देने पर भी अद्भुत सौम्य, आलोक, शांति, निश्चलता थी और माँ कैकई के प्रति पूर्ण प्रेम भाव था। कैसे मेरे प्रभु ने माँ शबरी के उच्छिष्ट बेर बड़े ही प्रेम से स्वीकार किये, सुग्रीव से मित्रता निभाई, साहस-पराक्रम-धैर्य को धारण किया। सब कुछ करते हुए भी निर्लिप्त रहे।सब कुछ जानते हुए भी जगत की रीत निभाई। श्री ओशो तक ने कहा है कि राम हमेशा एक रहे चाहें वो महलों में हों या वन में , सुख में हो या दुख में - ऐसे अपने स्वभाव में राम जी स्थित थे। इसलिए जिस प्रकार एक बालक अपने पिता की तरह होना चाहता है उसी प्रकार मैं भी श्री राम की भातिं शील, विनम्रता, कर्तव्यपरायणता, आत्म-स्वरूप में स्थिति, सत्य में दृढ प्रतिज्ञ, गुरु-संत जनों का सम्मान-आदर करने वाले स्वभाव को धारण करना चाहता हूँ। 

अब इस प्रकार सोचा सद्गुरु ने मुझें माँ की गोद में रख दिया - अब वो पराशक्ति त्रिपुरा सुंदरी माँ मुझे अपनी ममता,करूणा,दया,पुष्टि, शक्ति से पाल पोष कर श्री राम जी के जैसा बनायेंगी। अब राम मेरे ध्येय हो गये हैं और माँ सर्वस्व हो गयी हैं। श्री सदगुरु सेतु हो गयें हैं। और "भक्त-भक्ति-भगवंत-गुरु चतुर्नाम-बपु-एक" के अनुसार तीनो एक ही हैं और मेरे अन्दर ही हैं। इस प्रकार अब भ्रम-उहापोह कम हो गया है। भक्ति-उपासना-लगन गुरु आज्ञा अनुसार सब माँ पर आ कर टिक गये हैं। 

इसी प्रकार हमें अपने चंचल बच्चे जैसे मन को समझा-भुजा कर एक इष्ट की अनन्य भक्ति की ओंर लगाना चाहियें ताकि जीवन को सार्थक कर सकें। नहीं तो भटकने में कई जीवन लग जातें हैं।

www.kamakotimandali.com ने भी श्री राम और माँ ललिता त्रिपुरा सुन्दरी का तात्विक, अध्यात्मिक और पौराणिक सम्बन्ध इंगित किया है। श्री kamakotimandali   द्वारा निम्न आलेख प्रस्तुत है  -

Sri Lalita Sahasranama describes the greatness of Kamakoti with the names - kAmakoTikA and kAmAkShi. Sri Bhaskararaya comments thus on the name `kAmAkShi’ - it is the extraordinary name of the deity who presides over Sri Kamakoti Peetha. Lalitopakhyana of Brahmanda Purana describes the glory of Kanchi and states this as the holy place where the Upadesha of Sri Lalita Sahasranama was given by Lord Hayagriva to sage Agastya. This holy spot is now known as Upanishad Brahmendra Mutt, which also houses a huge Sri Rama Yantra consecrated by sage Narada. It is also said that the sacred Rama Raksha Stotra was revealed to sage Budha Kaushika at this place which now houses the ancient Mutt. One can see Hayagriveshwara and Agastyeshwara Lingas in this Mutt to this day.


शिव, शक्ति  एव  विष्णु  तत्व  की  एकता  पर   www.kamakotimandali.com ने  लिखा है की - 

Owing to ignorance, men perceive ambA to be different from shiva or viShNu and as non-identical with brahma vastu. But the truth is that she is indeed the supreme tattva:
yoyaM chakAsti gaganArNavaratnaminduH
yoyaH charAcharaguruH puruShaH purANaH |
yadvAmamardhamidamandakasUdanasya
devi tvameva taditi pratipAdayanti ||
For the sake of clarity, one can examine a few more such pramANas:
sahasramUrdhAnamanantashaktiM sahasrabAhuM puruShaM purANam |
shayAnamicChA lalite tavaiva nArAyaNAkhyaM praNato.asmi rUpam || [kaurme]
mamiva pauruShaM rUpaM gopikAjanamohanam |
kadAchillalitAdevI dhr^itashrIkR^iShNavigrahA |
veNunAdavinodena mohayatyakhilaM jagat || [brahmavaivarte]
ahaM cha vAsudevAkhyo nityaM kAmakalAtmakaH |
ahaM cha lalitAdevI puMrUpA kR^iShNavigrahA |
AvayorantaraM nAsti satyaM satyaM hi nArada || [pAdme]
abheda between devI and shrIrAma is also stated in vAlmIki rAmAyaNa:
kiM tvAmanyata vaidehaH pita me mithilAdhipaH |
rAma jAmataraM prApya striyaM puruShavigraham ||
Here, the phrase striyaM puruShavigraham is interpreted by vyAkhyAs like maheshvaratIrtha-tilaka to indicate the fulfillment of a prophecy in shiva purANa:
ityuvAcha mahesho.api priyAM himavataH sutAm |
pArvatI rAmarUpeNa sUryavaMshe bhavatpurA |
sItArUpeNa bhargastu videhAnvayajo.abhavat ||
According to the tale in shiva purANa, bhagavatI pArvatI incarnated as rAmachandra and Lord mahAdeva as sItA.

www.kamakotimandali.com द्वारा निम्न लेख भी प्रस्तुत है- 




Thursday, January 5, 2017

|| भाव सुमन -०५ - जूठी भक्ति व् भाव ||

|| जय माँ ललिता त्रिपुरा सुन्दरी ||
|| भगवान श्री सीता राम जी के रूप में चरणों में अर्पित ||



श्री रामजी, भरत भैया, लक्ष्मण भैया, शत्रुघ्न भैया सदा सहाय.




प्रभु हो सकता है मेरी भक्ति , समर्पण , भाव , रस जूठा हो या चालाक मन का दिखावा हो, भयवश हो. कैसी भी हो पर भगवन , आपको शबरी के जूठे बेर याद हैं न ? विदूर जी के घर के छिलके स्मरण हैं न ? ऐसी मेरी जूठी भक्ति, भाव , रस को चरणों में स्वीकार कर लीजिये न. अपनी परम्परा निभायिए स्वामी. मेरे पास ले दे के यही है जो है , और कहाँ से लाऊं. 

नाथ ! आपके परम परम परम प्रिय सुन्दर भक्तो की कथाये, बातें , भजन, भक्ति की जूठ पाकर अपना समय व्यतीत करता हूँ. जिस प्रकार मीरबाई, रसखान, सूरदास, पोतना, कुलशेखर आलवार, नामदेव, एकनाथ, कबीर, देवरहा बाबा जी, स्वामी रामकृष्ण परम हंस, रज़िया,नज़र, तुलसीदास जी, जयदेव, पीपा जी, गोरा कुम्हार, सुकुबाई, स्वामी शिवानन्द जी, नीब करोरी बाबा जी, नरसी भगत, जीव गोस्वामी , रूप व् सनातन जी, श्री चैतन्य महाप्रभु जी, नानक जी , समर्थ गुरु रामदास जी, संत तुकाराम जी, दादू, संत हरिदास, हरि बाबा, उड़िया बाबा, करपात्री जी महाराज, स्वामी अखंडानन्द सरस्वती जी, रामसुखदास जी, रामचंद्र डोंगरे जी, भाई जी, सिद्धाश्रम के सभी पावन संत, साधक, महावतार बाबा जी, आनंदमयी माँ, नानतिन बाबा, सोमवारी बाबा, गुदड़ी वाले बाबा, भद्राचलम रामदास, गुरुवर श्री कृष्णा चैतन्य आनंद जी, विनोद अग्रवाल , अलका गोयल, विनोद भार्गव जी आपसे किसी न किसी प्रकार व् किसी न किसी रूप में आपसे जूड़े गए हैं. आपके हो गए हैं.

और राम जी , इन सभी पवन भक्तो, संतो के चरित्र को पढ़-सुनकर में आपके नाम से जुड़ा गया हूँ. प्रभु इसे मेरी मौकापरस्ती न समझिएगा कि में दुःख के कारण आपसे जुड़ा गया हूँ. दुःख में बालक माता-पिता को ही पुकारा करते हैं. माया रुपी कांटे को निकलने के लिए दुख रुपी सुई तो लगनी ही पड़ती हैं या स्वामी माया रुपी निद्रा से जगाने के लिए दुख रुपी सुई चुभानी पड़ती ही हे. और आप तो मेरे शाश्वत माता-पिता हैं. कैसे न गुहार लगाऊँ आपसे. और माता पिता ही क्या अब तो सारे रिश्ते - नाते भाई, चाचा, ताऊ, मामा, ग्राहक, माल देने वाला, डाक्टर , राजा, सहायक, अम्मा , मित्र, अड़ोसी-पडोसी सब आप से ही हैं, राम जी. " सीता राममय सब जग जानी, करहूँ प्रणाम जोरी जुग पानी ".

राम जी ! मैंने आपको इतने सारे आत्मीय भक्तो का स्मरण करा दिया - सोचता हूँ कि उन सबका एक साथ स्मरण आते ही आपकी करूणा, ममता, दया, अहैतुकी कृपा के हिय-सागर में उफान आ जायेगा और उस उफान में एक-आध छींट पा कर क्या पाता मैं निहाल हो जाऊं. मैं भी न कुछ भी कहता रहता हूँ प्रभु , आप तो सर्वज्ञ, अन्तर्यामी, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, नित्य शुद्ध-बुद्ध हैं सब जानते ही हैं.

Wednesday, January 4, 2017

|| भाव सुमन -०४- राम जी अनोखे सौदागर ||

|| जय माँ ललिता त्रिपुरा सुन्दरी ||
|| भगवान श्री सीता राम जी के रूप में चरणों में अर्पित ||






हे करूणानिधि प्रभु ! मेरा तो कुछ भी नहीं है सब आपका ही है अतः ऐसा लगता है आप अपना सब कुछ वापस ले रहें हैं. वो तो ठीक है स्वामी , पर सब कुछ में मैं भी आता हूँ, मुझे लेना न भूलना !

हे नाथ ! थोडा गौर से देखूं तो आप जो थोडा बहुत ले लेते हो , बदले में अनंत गुना कर वापस दे देते हो.मेरा स्थूल प्रेम छूटा तो आपके श्री चरणों में प्रेम व् माँ की ममता और प्रीती प्राप्त हुई. समस्त जग के प्रति प्रेम की भावना होने लगी है. 

हे प्रभु ! नौकरी, डॉलर व् तनख्वा गयी तो राम नाम रूपी अमूल्य निधि प्राप्त हुई.

हे भगवन ! आप पिता रूप से मुझे छोड़ गए तो परम पिता के रूप में मेरे हृदय में आ विराजे हैं. 

हे मेरे सर्वस्व , मेरे प्राण ! अब छण भर ऐसा प्रतीत होता है की ८० x १५ का धरती मेरी नहीं है तो अनंत ब्रहमांड से एकता का छणिक अनुभव होता है. 
इसलिए हे दीननाथ ! आपका तो लेना भी दीनो को निहाल मालामाल कर देता है.

Tuesday, January 3, 2017

|| भाव सुमन -०३ - प्रभु से आस ||

|| जय माँ ललिता त्रिपुरा सुन्दरी || 
|| भगवान श्री सीता राम जी के रूप में चरणों में अर्पित ||


हे प्रभु राम ! मैं तो जैसे एक बहुत जंक लगा लोहा हूँ. मुझसे लाख कोशिश करने पर साधन - भजन नियम से बनता नहीं. मेरे स्वामी , मेरे सर्वस्व ! अब आपको ही शक्तिशाली चुम्बक बन कर मुझको खीचना पड़ेगा. तभी कुछ बात बनेगी, नहीं तो ये जीवन यूँ ही चला जायेगा. अब मालिक गेंद आपके पाले में है. प्रभु. अब आप ही कुछ करियें. में आपको टकटकी लगाये देखता हूँ. उत्तर की अपेक्षा है. पर एक इशारा मात्र भी कर दोगे तो ये दास उछल पड़ेगा !

Monday, January 2, 2017

|| भाव सुमन -०२- जिंदगी के खेल ||

|| जय माँ ललिता त्रिपुरा सुन्दरी ||
|| भगवान श्री सीता राम जी के रूप में चरणों में अर्पित ||



जिन्दगी के खेल में इस प्रकार खेलना चाहियें जैसे दो मित्र खेल खेल रहें हों. कोई भी जीते या हारे, निर्लिप्त भाव हो. और वो कैसे आएगा- सामने वाले में अपने आराध्य, ईष्ट देव की छवि का दर्शन करें. वे प्रभु अन्तर्यामी सबके आत्मा हैं. 


न हमें उनकी जीत का गम है, और न अपनी हार का गम हैं. 
दोनों तरफ है जीत मेरे राम की, इस ही ख़ुशी में मेरी आँखे नम हैं.

Sunday, January 1, 2017

|| भाव सुमन -०१- कौन हो प्रभु तुम ! ||

|| जय माँ ललिता त्रिपुरा सुन्दरी || 
|| भगवान श्री सीता राम जी के रूप में चरणों में अर्पित ||



कौन हो प्रभु तुम, और ये क्या सम्बन्ध है. 
झुकी झुकी हैं नज़रे , और ये जुबां बंद है .
क्योँ थर थराए वाणी , क्योँ ये आँखे नम हैं.
क्योँ दिल भर भर आता, क्योँ कुछ नहीं सुहाता.
इतनी करता हूँ बातें, ये जो तुम सामने नहीं हो.
गर तुम नज़र आते, मुझे सबसे पीछे पाते.
बोलना तो दूर, नज़रें न मिला पाता.
न कोई गिला हे तुमसे, नो कोई शिकवा है.
तुम हो स्वाति बूँद प्रभु, ये दास चकवा है.
तुम कितने जहां के मालिक, और मैं कुछ भी नहीं हूँ.
मेरी शुरुआत हे तुमसे, तुममे ही समाना है.
कहाँ से आया हूँ, और कहाँ जाना है.
चाहे ले लेना ये प्राण, पर मुझसे अपना नाम न लेना. 
प्राण बिना में जी जाऊँगा, पर नाम बिना में मर जाऊँगा.