हे अम्बिका त्रिपुरा सुन्दरी माता !
मुझमे इतना बल और शक्ति नहीं है की मैं तेरी गोद में स्वयं ही चढ़ आऊँ मां. माँ ये तो बता कब से बालक को माँ की गोद में आने के लिए शक्ति और बल चाहियेंने लगा. माँ ! कब से बालक को माँ के आँचल में छिपने के लिए पवित्रता के प्रमाण आवश्यकता लगने लगी. हर कोई यही बताता है मां , साधना करनी होगी , पवित्रता चाहियें. माँ मेरी साधना तो यह करुण व आर्त क्रन्दन ही है मेरी स्वछता तो इन अश्रु जल से भीगना ही है माँ.
माँ मैं तो सोचता था माँ का आँचल तो निर्बल व् मल से सने बच्चो को भी प्यार व् ममता से सम्भालने के लिए होता है. बल तो बालक को माँ की गोद प्रदान करतीं है, बालक को स्वच्छ तो माँ स्वयं ही करती है.
हे अम्बिके, हे त्रिपुरा सुन्दरी मैया ! कब तू इस बालक की आर्त पुकार सुन दौड़ी चली आएगी मां, कब तक यो ही निष्ठुर होने का नाटक करेगी मां, क्योँ माँ, तेरे को और कोई खेल नहीं सुझा अपने बालक से खेलने के लिए, मुझसे अलग होने के अलावा.
माँ तू सब के अंदर माता रूप से विद्यमान है, पर माँ मुझे तेरे दर्शन क्योँ नहीं होते, क्या मेरी अपवित्रता तेरी ममता व् करूणा से बड़ी हो गयी है मां ? क्या मैं तेरा शाश्वत पुत्र नहीं हूँ मां ? या तू भी मुझे स्थूल रूप में शिशु, युवक , व्यस्क ही देखती हैं मां, क्या तू भी मुझे मेरे कर्म, गुण व् चेष्टाओं, पाप, पुण्य से तोलती है माँ ?
देख माँ , तू कितने ही रूप में क्योँ न प्रकट हुई हो मां, पर में तो तेरा एक ही रूप जानता हूँ और वो है मेरी माँ का. मुझे तेरे अलावा कोई ठोर नहीं है माँ, माँ जब तक तू मुझे गोद में लेकर परम पिता के हाथ में न देगी , तब तक ये बालक माता पिता के प्रेम से वंचित ही रहेगा माँ.
माँ मैं जो हूँ वो मैं हूँ नहीं, और जो मैं होना चाहता हूँ वह मैं हूँ ही.
माँ मुझे बहुत तरह से प्रार्थना करनी भी नहीं आती, मन में जो आया वो कह दिया, माँ. और मैंने क्या कहा माँ , यह भी तूने ही कहलवाया है.
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