तेरे को याद है न श्री भगवन राम जी ने कैसे भ्रात्र प्रेम को जिया था. और उनका राज तिलक होने की बात पर अफ़सोस प्रकट किया था - “बिमल बंश यह अनुचित एकु ” . अतः ऐसे ही तू समझना. याद रख आचरण से ही बात कहीं जाती है- जब तक मेरा हक , मेरा मकान - मेरा हिस्सा, मेरा भविष्य, मेरी आमदनी यह शब्द मानस पटल से गायब नहीं हो जाते. श्री भगवान इस मन में कैसें पधारेंगे तथा माँ बाला त्रिपुरा सुन्दरी तुझे गोद में कैसे लेंगी, बोल ? वो तो राज पुत्र थे - फिर भी माँ कैकयी द्वारा वनवास देने पर भी मेरे प्रभु श्री राम जी के मुख मंडल पर अद्भूत दिव्य मंद मुस्कान थी और माँ कैकयी के प्रति पूर्ण मातृत्व व् श्रद्धा का भाव था - ऐसी मेरे प्रभु राम जी की निर्मल व् निश्चल छवि हमारे हृदयों की कुटिलता को हर ले, अपने जैसा बना दें. विश्वास रख भले युग बदल गया हो - कलयुग आ गया है पर मेरे राम जी के आचरण का सिद्धांत आज भी अकाट्य है व् अनुकरणीय है. क्या तुझे अपने पिता, चाचा व् ताऊ सगे भाईओं के मन की तल्खी देखकर दिल नहीं फट जाता. क्या अपने पडोसी व् मित्रो के पिताओं व् उनके भाईओं की तल्खी देख हृदय रो नहीं पड़ता कि कैसे एक माता पिता की संतान होने पर भी , पूरा बचपन साथ में खेलने पर भी , कैसे उनके मन में एक दुसरे के प्रति प्रेम ख़तम हो जाता है. हम प्रभु राम जी को पूजते तो जी भर हैं पर उनको जीना एक पल नहीं चाहते. जैसे एक छोटा बच्चा अपने पिता की तरह होना चाहता है व् एक अच्छा सेवक अपने उच्च मालिक के जैसे व्यवहार को अपनाना चाहता है वैसे ही में अपनी माँ बाला त्रिपुरा सुंदरी सेकहता हूँ कि माँ मुझे मेरे प्रभु श्री राम जी जैसा बनाना.
मैं प्रभु श्री राम जी, भारत जी, लक्ष्मण जी, शत्रुघ्न जी व् माँ बाला त्रिपुरा सुन्दरी से प्रार्थना करता हूँ कि सभी भाईओं में प्रेम व् सोहार्द का भाव उत्पन्न हो.
“ कलकत्ता में डा. दास गुप्ता एक जाने माने डॉक्टर थे. वे श्री राम ठाकुर के भक्तों में 'डॉक्टर दादा' के नाम से जाने जाते थे. श्री राम ठाकुर एक भगवद् स्वरूप संत थें जिनकी चर्चा स्वयं श्री नीम करोली बाबा जी भी किया करते थे. डॉक्टर साहब श्री राम ठाकुर का सान्निध्य प्राप्त करने का एक भी मौका नहीं छोड़ते थे. एक दिन वो अपनी कार से कहीं जा रहे थे, उन्होंने श्री ठाकुर को रोड पर देखा. उन्होंने कर रोकी और पूछा की आप कलकत्ता कब आयें और कहाँ रह रहें हैं . श्री ठाकुर जी ने कोई उत्तर नहीं दिया. इसके बजाय, वो बोले - “हर कोई जानता है कि दुर्योधन एक दुष्ट प्रवर्ती का मनुष्य था. उसके 100 भाई थे. तुम पूरा महाभारत पढ़ सकते हो लेकिन तुम कहीं नहीं पाओगे कि उसका अपने भाईयो से कोई झगडा था या उसने उन्हें प्यार नहीं किया. ”
श्री ठाकुर के शब्दों ने अपना प्रभाव दिखाया. डॉक्टर ने अपना हाथ कार में डाला, और पेपरों की एक फाइल बहार निकाली, और उसको टुकड़े-टुकड़े कर फाड़ कर फ़ेंक दिया. और सिर उठाकर श्री ठाकुर को देखा पर वो तो जा चुके थे. बात यह थी कि डॉक्टर साहब हाई कोर्ट जा रहें थे, जहाँ उनका मुकदमा अपने भाईओं से जमीन-जायदाद के ऊपर चल रहा था. बाद में पूछताछ करने पर पता चला कि श्री ठाकुर तो एक हफ्ते से शिमला में हीं हैं और कहीं नहीं गये थे. ऐसे थे दिव्य श्री ठाकुर और उनका सन्देश भ्रात्र प्रेम के लिये. (story taken from Maharajji.com)
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