Thursday, March 23, 2017

हे लग्नस्थ राहु महाराज ! Prayer to Rahu !



हे लग्नस्थ राहु महाराज !

मानता हूँ कि आप लग्न में बैठकर मन को स्थिर नहीं होने देते। आप बहुत महत्वाकांक्षी हैं। आप मन को एक तरीके में, एक साधना विधि में स्थिर नहीं होने देते। बार बार पलटते हैं।  और लोगो से घुल-मिल कर चलने से रोकते हैं।  व्यवहारिक नहीं होने देते। आप मन को संतुष्ट नहीं होने देते और और  करते हैं।  

आप  कृपया इतना तो मेरे लिए कर ही दीजिये।  मेरी महत्वाकांक्षायें  माँ  के चरणों की प्राप्ति तथा माँ की गोद प्राप्ति की हों जायें। इससे ऊंची महत्वाकांक्षा  तो इस जगत  में हो ही नहीं सकती है।  

मेरा मन एक चीज़ में स्थिर न हो तो मैं कभी माँ के नाम का जप करूं, कभी उनके चरण कमलों का ध्यान करूं, कभी उनका नाम संकीर्तन करूं, कभी ध्यान में माँ से बातें करूं, कभी सर्व जगत में उनको व्याप्त देखूँ। कभी सद्गुरु को उनका स्वरूप मान पूजूं । कभी कन्या पूजन द्वारा माँ का पूजन करूं। कभी सत्संग का आयोजन करूं। कभी माँ के बच्चो को भोजन कराऊँ।  कभी माँ के प्यारे संतों जैसे श्री रामकृष्ण  परमहंस, श्री वामाक्षेपा के जीवन चरित्र सुधा का पान करूं। कभी सभी देव स्वरूपों में माँ का ही दर्शन करूं।  सुख और दुःख में उनका ही लीला का दर्शन करूं। कभी माँ से गुस्सा हो जाऊं तो कभी उनसे सुलह कर लूं। कभी उनको ब्रहम स्वरूप देखूँ  तो कभी अपनी माता स्वरूप में।  पर रहूँ मैं सर्वदा माँ का शिशु ही। 

अगर मैं किसी से घुलू-मिलूँ नहीं तो एकांत में माँ का स्मरण करूंऔर उनके चरण कमल के सानिध्य में रहूँ। 

अगर मैं समाज से व्यवहारिक न होऊं तो मेरा सब जग व्यवहार केवल माँ के नाते से ही होवे।  

अगर मैं किसी चीज़ से संतुष्ट न होऊं तो वो हो माँ के भजन-सुमिरन से। 

अगर मुझे बहुत भूख लगे तो माँ ही मुझे खिला रहीं हैं ऐसा मेरा भाव हो। 

मैं सोऊं तो माँ की गोद में ही।  

कृपया माँ के लिए इतना तो कर ही दीजिये राहु महाराज।  इतना तो कर ही दीजिये ।   

जय माँ ललिताम्बा।  जय गुरुदेव । 

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